Lekhika Ranchi

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कपाल कुंडला--बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय




कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रथम खण्ड

: १ : सागर-संगम में

“Floating straight obedient to the stream,”
—Comedy of Errors

लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व माघ मासमें, एकदिन रात के अन्तिम प्रहरमें, यात्रियों की एक नाव गङ्गासागर से वापस हो रही थी। पुर्तगाली और अन्यान्य नौ-दस्युओं के कारण उस समय ऐसी प्रथा थी कि यात्री लोग गोल बाँधकर नाव-द्वारा यात्रा करते थे। किन्तु इस नौका के आरोही संगियों से रहित थे। उसका प्रधान कारण यह था कि पिछली रातको घोर बादलोंके साथ तूफान आया था; नाविक दिक्‌भ्रम होनेके कारण अपने दलसे दूर विपथ में आ पड़े थे। इस समय कौन कहाँ था, इसका कोई पता न था। नावके यात्रियों में बहुतेरे सो रहे थे। एक वृद्ध और एक युवक केवल जाग रहे थे। वृद्ध युवक के साथ बातें कर रहा था। थोड़ी देर तक बातें करने के बाद वृद्धने मल्लाहों से पूछा—“माझी! आज कितनी दूरतक राह तय कर सकोगे?” माझी ने इधर-उधर बहकावा देकर उत्तर दिया—“कह नहीं सकते।”

वृद्ध नाराज होकर नाविक का तिरस्कार करने लगा। इसपर युवकने कहा—“महाशय! जो भगवान्‌ के हाथ की बात है, उसे पण्डित-विद्वान् तो बता ही नहीं सकते, यह बेचारा मूर्ख कैसे बता सकता है, आप नाहक उद्विग्न न हों।”

वृद्धने उत्तेजित होकर जबाब दिया—“उद्विग्न न होऊँ! क्या कहते हो? पाजियों ने बीस-पचीस बीघे का धान काट लिया, बच्चोंको सालभर क्या खिलाऊँगा?”

यह खबर उन्होंने गङ्गासागर पहुँचने पर पीछे से आनेवाले यात्रियों के मुँह से सुनी थी। युवकने कहा—“मैंने तो पहले ही कहा था कि महाशय के घरपर दूसरा कोई देखभाल करनेवाला नहीं है....महाशय का आना अच्छा....उचित नहीं हुआ।”

वृद्ध ने पहले की तरह उत्तेजित स्वर में कहा—“न आना? अरे, तीनपन तो चले गये! आखिरी अवस्था आ गयी! अब यदि परकाल के लिए कुछ न करूँ, तो कब करूँगा?”

युवक ने कहा—“यदि शास्त्र का मर्म समझा जाय, तो तीर्थदर्शन से परकाल के लिए जो कर्म साधित होता है, घर बैठकर भी वह हो सकता है।”

वृद्ध ने कहा—“तो तुम आये क्यों?”

युवक ने उत्तर दिया—“मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि समुद्र देखने की साध थी। इसीलिये आया हूँ मैं।” इसके बाद ही अपेक्षाकृत मधुर भावुक स्वरमें कहने लगा—“अहा! कैसा दृश्य देखा है, जन्म-जन्मान्तर इस दृश्य को भूल नहीं सकता!”

दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी
तमालतालीवनराजिनीला।
आभाति वेला लवणाम्बुराशे-
र्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥

वृद्ध के कान कविता की तरफ न थे, बल्कि नाविक आपसमें जो कथोपकथन कर रहे थे, वह एकाग्र मनसे उसे ही सुन रहा था।

एक नाविक दूसरे नाविक से कह रहा था—“ऐ भाई! यह काम तो बड़ा ही खराब हुआ। अब कहाँ किस नदी में आ पड़े—कहाँ किस देशमें आ पड़े, यह समझ में नहीं आता!”

वक्ता का स्वर भयकातर था। वृद्धने भी समझा कि किसी विपद्‌ की आशंका का कोई कारण उपस्थित है। उन्होंने डरते हुए पूछा, “माझी! क्या हुआ है?” माझी ने कोई जवाब न दिया। किन्तु युवक उत्तर की प्रतीक्षा न कर बाहर आया। बाहर आकर देखा कि प्रायः सबेरा हो चला है। चारो तरफ घना कुहरा छाय हुआ है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, किनारा किसी तरफ कुछ दिखाई नहीं पड़ता। समझ गये कि नाविकों को दिक्‌भ्रम हो गया है। इस समय वह सब किधर जा रहे हैं, इसका ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं खुले समुद्र में न पड़ जायें, यही उनकी आशंका है।

हिम निवारण के लिये नाव सामने से आवरण द्वारा ढँकी हुई थी; इसीलिये भीतर बैठे हुए आरोहियों को कुछ मालूम न हुआ। किन्तु युवक ने अच्छी तरह हालत समझकर वृद्ध को समझा दिया; इस पर नाव में महाकोलाहल उपस्थित हुआ। नाव में कई औरतें भी थीं। कोलाहल का शब्द सुनती हुई जो जागीं, तो लगीं चिल्लाने—“किनारे लगाओ, किनारे लगाओ, किनारे लगाओ!”

नवकुमार ने हँसते हुए कहा—“किनारा है कहाँ? उसके मालूम रहते इतनी विपद् काहे की होती?”

यह सुनकर नावके यात्रियों का कोलाहल और भी बढ़ गया। युवक यात्री ने किसी तरह उन लोगों को समझा-बुझाकर शान्त कर नाविकों से कहा—“डरकी कोई बात नहीं है, सबेरा हुआ— चार-पाँच दण्डों में अवश्य ही सूर्योदय हो जायगा और चार-पाँच दण्ड में इधर नाव भी डूबी नही जाती है। तुम लोग भी अपने डाँड़े बन्द कर दो। धारा में नाव जहाँ जाये, जाने दो। पीछे से सूर्योदय देखकर विचार किया जायगा।”
नाविकों ने इस परामर्श पर राजी होकर उसके अनुसार कार्य किया।

बहुत देरतक नाविक निश्चेष्ट होकर बैठे रहे। उधर मारे भयके यात्रियों का प्राण कण्ठागत था। वायु बिलकुल न थी। अतः उन्हें लहरों के थपेड़ों का अनुभव उस समय नहीं हो रहा था। फिर भी, सब यही सोच रहे थे कि मृत्यु सुनिश्चित है और निकट है। पुरुष निःशब्द होकर दुर्गानाम जपने लगे और औरतें स्वर मिलाकर रोने लगीं। एक औरत अपनी सन्तान को गङ्गासागर में विसर्जन करके आ रही थी। लड़के को जल में डालकर फिर उठा न सकी। केवल वही औरत रोती न थी।

प्रतीक्षा करते-करते प्रायः वेला-अनुभव से एक प्रहर बीत गया। ऐसे ही समय मल्लाहों ने दरिया के पाँचों पीरों का नाम लेकर एकाएक कोलाहल मचाना शुरू कर दिया। सब लोगों ने पूछा,—“क्या हुआ, क्या हुआ, माझी! क्या हुआ।” मल्लाह उसी तरह कोलाहल करते हुए कहने लगे,—“सूर्य निकले, सूर्य निकले, लगाओ डाँड़ा, लगाओ डाँड़ा।” नाव के सभी यात्री उत्सुकता-पूर्वक बाहर निकल देखने लगे कि क्या हालत है, हम कहाँ हैं? देखा, कि सूर्य का प्रकाश हो गया है। करीब एक प्रहर दिन बीत गया था। जहाँ इस समय नौका है, वह वास्तविक समुद्र नहीं है, नदीका मुहाना मात्र है, किन्तु नदीका वहाँ जैसा विस्तार है, वैसा विस्तार और कहीं भी नहीं है। नदीका एक किनारा तो नाव से बहुत ही समीप है—यहाँ तक कि कोई पचास हाथ दूर होगा, लेकिन नदीका दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता; और दूसरी तरफ जिधर भी देखा जाता है, अनन्त जलराशि है। चञ्चल रवि रश्मिमाला प्रदीप्त होकर आकाशप्रान्त में ही विलीन हो गई है। समीप की जल सचराचर मटमैला नदी-जल की तरह है, किन्तु दूरका जल नील—नीलप्रभ है। आरोहियों ने निश्चित सिद्धान्त कर लिया है कि वे लोग महासमुद्र में आ पड़े हैं। फिर भी, सौभाग्य यही है कि किनारा निकट है और डर की कोई बात नहीं है। सूर्यकी तरफ देखकर दिशाका निरूपण किया। सामने जो किनारा वे देख रहे थे, वह सहज ही समुद्रका पश्चिमी तट निरूपित हुआ। किनारे तथा नावसे थोड़ी ही दूर पर एक नदी का मुँह मंदगामी जलके प्रवाह की तरह आकर पड़ रहा था। संगमस्थल के दाहिने बाजू बृहद् वालुका-राशि पर बक आदि पक्षी अगणित संख्या में क्रीड़ा कर रहे थे। इस नदी ने आजकल “रसूलपुर की नदी” नाम धारण कर लिया है।

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